संवत् 1440 के आस – पास डाबी सांवतसिंह के परिवार में एक करामाती पुरुष का जन्म हुआ
जिसका नाम बीका रखा गया बीका बचपन से ही मॉ अम्बा का परम् भक्त था । जब बीका की आयु विवाह योग्य योग्य हुई तो उसके माता- पिता ने सुयोग्य कन्या के साथ बीका का विवाह भी कर दिया। दोनो अम्बाजी के परम्भक्त थे ।
समय ने बीकाजी व उनकी पत्नी को चिंता में डाल दिया क्योंकी एक दशक बीतने के बाद भी उन्हें सन्तान सुख की प्राप्ति नहीं हुई । बीकाजी ने काफी चिन्तन ने काफी चिन्तन कर यह माना है शायद उनके प्रारब्ध कर्मों का फल है तथा प्रारम्ध कर्मों के फल से छुटकारा भक्ति , ईश्वर की दया तथा क्रियमाण कर्म की अच्छाइयों से ही हो सकता है अतः उन्होने अम्बाजी की भक्ति दिन रात चौगुनी करके की । संतान हीनता एक अभिशाप है ।
संतानहीन व्यक्ति अन्तर्मुखी होते है । समाज में आज भी सन्तानहीन मनुष्यों का महत्व अन्य व्यक्ति कम ही आंकते है । सांसारिक यात्रा में बच्चों की किलाकारियॉ सुखद होती है ऐसा प्रकृति का नियम है । बीकाजी डाबी के नाना प्रकार के उपक्रम करने के पश्चात् भी उन्हे सन्तान सुख की प्राप्ति नहीं हुई । अम्बाजी से उनका विश्वास व श्रद्दा डगमगाने लगी । भक्त का कल्याण व प्रभाव ईश्वर ही बढाते हैं , परन्तु अनेक वर्षों की तपस्या के बाद भी भक्त विश्वास के प्रसाद को नहीं चख पाए वह या तो स्वयं को अभागा या ईश्वर को अविश्वासी समझने लगता है ।
बीकाजी डाबी की तृष्णा ने ही उन्हें दुखी किया क्योंकि गीता के अनुसार मनुष्य का निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ है , वह उसे न तो बांधता है न दुखी करता है । भक्ति भी निष्कामता से ही हो , उससे भगवद् प्राप्ति की इच्छा भी एक तरह से फल की इच्छा ही है जिसका गीता में स्पष्ट निषेध किया गया है । परमेश्वर को समर्प्रित होकर किया गया कर्म हमें अकर्ता बनाता है जो कर्ता भाव को नष्ट करता है ऐसा गीताकार गीता में मनुष्य को निर्देशित करता है ।
डाबी ने यह ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् अकर्ता भाव से अम्बाजी की कर्मयुक्त भक्ति करनी प्रारम्भ की
डाबी ने यह ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् अकर्ता भाव से अम्बाजी की कर्मयुक्त भक्ति करनी प्रारम्भ की । उन्होने अम्बाजी की इच्छा में ही प्रसन्न रहने का अनवत अभ्यास किया । उन्हें हीनता में भी पूर्णता का अनुभव होने लगा । यही अवस्था गीता के अनुसार स्थितप्रज्ञ की है ।
बीकाजी की भक्ति, कर्म व ज्ञान की इस अवस्था से उनके दैविय शक्ति आ गई। गीताकर ने लिखा है, ‘ तेज क्षमा धृतिः शौचम्दोहो नातिमानिता भवन्ति संपदं दैवीममिजातस्य भारत। ‘अर्थात तेज, क्षमा, धैर्य और बारह भीतर की शुद्धि और किसी में भी शत्रुता का भाव न होना तथा अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव, यह सब तो हे अर्जुन। देवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण है।
बीकाजी की इस अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् अम्बाजी की प्रसन्नता की कृपा प्राप्त हुई तथा उन्हे स्वयं अम्बाजी जैसी पुत्री प्राप्त हुई। बीकाजी डाबी साक्षात् अम्बा सा रुप घर में पाकर अति प्रसन्न हुए व उनकी भक्ति की कठिनता सरलता में बदल गई। उनकी पुत्री का नामकरण जीजी हुआ।
श्री आईजी की प्रामाणिक जीवन प्रस्तुत की जा रही है, जो इस प्रकार है ‘साध्वी, परम्तपस्विनी, समाज कल्याणी, मां अम्बा की भक्ति, ज्योतिस्वरुपा श्री आईजी का जन्म विक्रम संवत् 1472 में गुजरात के दांता राजय के अम्बापुर नामक स्थान पर निःसंतान बीकाजी के घर अम्बा की अनेक वर्षो की कठिन तपस्या के फलस्वरुप हुआ था।‘
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