विनम्र तथा अनभिज्ञ परिहारों ने जीजी को देवी मानकर हर्षोलासित होकर होकर उनका आदर सत्कार एवं आवभगत की ।
जीजी इस नगर में अपनी दिव्य दृष्टि से सीरवीयों की सतत् कर्म – शीलता परन्तु आध्यात्मिकता के अभाव को देखा तो उनके कल्याण के लिए सहज भाव से परिहारों की गवाड़ी (कुल) में बिना बुलाए मेहमान बनकर पधारी ।
परिहारों की सरलता तथा भोलेपन से जीजी बहुत प्रभावित हुई । उन्होने परिहारो से उनके (जीजी के) बैल को एक खूंटे से बांधने को कहा । परिहारो मे से किसी ने उस बैल को घर में ही एक खूंटेनुमा पत्थर से बांध दिया । जीजी ने रात भर परिहारो के घर मे ही भजन – कीर्तन तथा भगवान का स्मरण किया । उन्होने घर के सदस्यो को सहज भाव से ईश्वरीय ज्ञान तथा शक्ति के बारे मे सरलता पूर्वक जानकारी दी । वहां पर उपस्थित समस्त स्त्रियों – पुरुषो तथा बच्चो को अपार तथा अलौकिक आनन्द की अनुभूति हुई ।
जीजी के परिहारों के घर से चले जाने से पश्चात् वह खूंटा जीजी का प्रतीक बन गया । सीरवी उस खुंटे की ही पूजा – अर्चना करने लगे । उन्होने उन्ही के द्दारा जमीन में गाड़े उस छोटे से जड़ पत्थर को किसी कारणवश खोदा तो वह चेतन बन कर अन्नत हो गया । सीरवी जीजी की शक्ति को अपरम्पार समझकर उस खूंटे को उनका रुप तथा सन्देश मानकर साधना करने लगे । इस सामान्य की घटना को संसार के सभी धर्मों तथा मतों का रुप मान सकते हैं क्योकि यदि किसी साधक के भाव सरल तथा प्रबल हो तो किसी भी प्रकार का आधार चेतन बन जाता है ।
नारलाई नगर के उतर – पूर्व में बैठे हुए हाथीनुमा एक विशाल एवं सुन्दर पर्वत जो कि जैएकलिंगजी पहाड़ के नाम से जाना जाता है, के लगभग बीच में एक अधर गुफा में भगवान शिव का एक छोटा सा मन्दिर था । जैएकलिंगजी मेवाड़ राज्य के सिसोदिया वंश के कुलदेवता हैं । चूंकि देवनगरी नारलाई मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत थी अत: एकलिंगजी नाम की प्रसिद्द होना स्वभाविक था । महान् स्वतंत्रता प्रेमी महराणा प्रताप ने इन्ही एकलिंगजी की तपस्या व संदेश के बलबूते जैसे पराक्रमी तथा सशक्त शासक को जीवन पर्यन्त परेशान किया। जैएकलिंगजी के पर्वत की अधर गुफा में शिव मन्दिर भी जैएकलिंगजी मन्दिर के नाम से जाना जाता था ।
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