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अखन्ड ज्योति कि स्थापना व श्री आईजी नाम

एकांत तथा तपस्या हेतु उपयुक्त स्थान जानकर जीजी इस गुफा में पधारी तथा अहोरात्र तपस्या में लीन रहने लगी । शिवशक्ति की अखण्ड साधना व अराधना से प्रभावित होकर जीजी के दर्शनार्थ अनेक दर्शनार्थी वहां आने लगे । जीजी ने सगुण – निर्गुण रुप से समन्वय के लिए अखन्ड ज्योति जलाकर लोगो को ‘ तमसो मां ज्योतर्गमय ” तथा ईश्वरतत्व की अनुभुति हेतु प्रेरित किया। जीजी ने लोगो को सांसारिक कर्म करते – करते प्रभु स्मरण तथा समर्पण का संदेश दिया ।

जीजी  ने ईश्वर स्मरण के लिए पोशाक, दाढ़ी – जटा , माला आदि बाह्रा आड़म्बरों पर ही निर्भर नहीं रहने अपितु ‘ मनसा वाचा कर्मणा ‘ से शुद्द रहते हुए उस परमत्व के स्मरण के स्मरण का सुगम , सरल तथा सहज संदेश दिया ।  इन सरल उपदेशों से प्रभावित होकर अनेक लोग जीजी के अनुभवी बन गए तथा जीजी के संदेशो का अक्षरश: पालन करने लगे । लोगो का अहो भाग्य था कि उन्हे चलते- फिरते व काम करते ईश्वर स्मरण करने का मां से सरल संदेश मिला। सचमुच जैसे लोग थे वैसा ही उन्हें धार्मिक उपदेश मिला ।

जीजी का जन्म कोख से न हुआ मानकर कुछ लोग इन्हें श्री आईजी अथवा श्री आई माताजी कहने लगे । मराठी में आई का अर्थ (मां) होता है तथा राजस्थान की समस्त क्षेत्रीय भाषाओं अथवा बोलियों और मराठी भाषा में  मूल रुप से अधिक समानता है अत: लोग  मां के अर्थ में भी जीजी को ‘ श्री आईजी ’ कहने लगे ।

जीजी किसी स्थान विशेष पर ही अधिकाधिक तथा इस आयुष्य में रहना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें तो अधिकाधिक लोगो का कल्याण करना था अत: देवनगरी नारलाई के जैएकलिंग के पहाड़ की अधर गुफा में अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित कि ।

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